Tuesday 27 November 2012

महेश्वरी में लक्ष्मीनारायण महोत्सव आज


निज प्रतिनिधि, सोनो: भक्ति व आराधना का अनूठा संगम बुधवार को महेश्वरी गांव में देखने को मिलेगा। कार्तिक पूर्णिमा के मौके पर यहां आयोजित होने वाले लक्ष्मीनारायण महोत्सव में बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की सहभागिता ने इस गांव को एक अलग पहचान दी है। गांव के उत्तर में योगिया, पूरब में कलोथर तथा पश्चिम दिशा में प्रवाहित होने वाली गोरिया नदी की कलकल धाराएं मानो महेश्वरी में त्रिवेणी की महत्ता का आभास दिला रही हो। इस वार्षिक उत्सव में शामिल होने यहां के बेटे परदेश से पहुंच रहे हैं तो बेटियां ससुराल से इस उत्सव में शामिल होने महश्वरी आ चुकी हैं। लक्ष्मीनारायण महोत्सव इस गांव का सबसे बड़ा महोत्सव है।
महोत्सव का इतिहास
बात 16 वीं शताब्दी की है। क्षत्रियों के इस गांव में एक महात्मा का आगमन हुआ था। ग्रामीणों की अनन्य श्रद्धा से वशीभूत हो महात्मा यहां ठहर गए। वे प्रतिदिन कलोथर नदी में ब्रह्मामुहू‌र्त्त में स्नान को जाते। ध्यान-अर्चना के दौरान वे अपनी जटा खोलते और उससे शालिग्राम की मूर्ति निकालकर उसे वैदिक मंत्रोच्चार के साथ स्नान कराते। इसी प्रकरण को उनके दो शिष्यों राम पांडेय व राम सिंह ने देखा लिया। महात्मा से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि यह लक्ष्मीनारायण की मूर्ति है जिसे अब तुम दोनों भक्तों को सौंपता हूं। लक्ष्मीनारायण के मूर्ति स्थापना व उसकी पूजन विधियों को बताकर महात्मा अदृश्य हो गए।
पारंपरिक मान्यताएं व विश्वास
गांव के उद्भव काल से ही बाबा लक्ष्मीनारायण की पूजा-अर्चना यहां होती आई है। कार्तिक पूर्णिमा को यहां अहोरात्र का आयोजन होता है जिसका विशेष महत्व है। यूं तो बसंत पंचमी तथा जन्माष्टमी को भी यहां अहोरात्र होता है। लेकिन कार्तिक पूर्णिमा के अहोरात्र की अपनी खास मान्यता है। पूर्णिमा की दोपहर बाबा मंदिर में ध्वजारोहण किया जाता है जिसका अवरोहण 24 घंटे बाद होता है। आरोहण-अवरोहण की इस अवधि में गांव के किसी भी घर में चूल्हे नहीं जलाए जाते।
दहिऔरी है बाबा का प्रिय प्रसादामृत:
बाबा का प्रिय नैवेद्य है दहिऔरी। द्वापर में ही दही-गुड़ डालकर बनाए जाने वाले एक विशेष नैवेद्य की चर्चा पुराणों में मिलती है। लक्ष्मीनारायण के भक्तों के प्रसाद की थाली में दहिऔरी जैसा नैवेद्य निश्चित रुप से इस महोत्सव की पुरातनता को परिलक्षित करता है।
लक्ष्मीनारायण स्यात नुवर दयया
द्रव्यरामाभ्रनेत्रे
जीर्णशीर्ण यदा सीडिपरदिन रचितम
वैक्रमाब्दे नवीनम् । 

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